भारतीय मीडिया एवं
बुद्धिवादियों का एक वर्ग तर्क देता है कि भारत अपने बाजार के बूते चीन को झुका
सकता है। वे भूल जाते हैं कि भले ही भारत का बाजार चीन के लिए जरूरी हो, लेकिन इसके लिए वह नतमस्तक हो जाएगा, ऐसा नहीं है।
इतना ही नहीं वह बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव, सीपेक, ग्वादर, हम्बनटोटा और मारओ मामले में भी पीछे नहीं
हटेगा
माना जा रहा है कि 21वीं सदी एशिया की है, और भारत तथा चीन एशिया की दो बड़ी ताकतें हैं। सो, इन दोनों के बीच होने वाली सहमतियां और असहमतियां ग्लोबल नैरेटिव तैयार कर सकती हैं। 27-28 अप्रैल को वुहान में मोदी-जिनपिंग अनौपचारिक शिखर बैठक को सामान्यतया इसी नजरिए से देखा जा रहा है। लेकिन कई प्रश्न हैं? पहला, शिखर बैठक की पटकथा किसने लिखी थी? इस ‘‘वन-ऑन-वन’ या ‘‘हार्ट-टू-हार्ट’ कूटनीति के कोई स्थायी मायने और उपलब्धियां क्या अभी सामने आ पाई हैं? हार्ट-टू-हार्ट जैसी शब्दावली तो जट्टी उमरा (लाहौर) में मोदी-शरीफ मुलाकात के लिए भी प्रयुक्त हुई थी। वह भी अनौपचारिक मीटिंग थी। मोदी-जिनपिंग मीटिंग पर विदेश मंत्रालय की तरफ से कहा गया है कि दोनों नेताओं ने आतंकवाद को साझा खतरा बताया। प्रधानमंत्री मोदी ने जिनपिंग के साथ सैर करते हुए अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए लिखा है कि हमने आर्थिक सहयोग को गति देने के तरीकों पर बात की। संशय नहीं कि ‘‘वन-ऑन-वन’ अनौपचारिक शिखर बैठक में दोनों नेताओं के पास पर्याप्त समय एवं स्पेस होता है कि ‘‘कोर इश्यूज’ पर विस्तृत व निर्णायक बात कर सकें। लेकिन मेरी समझ से कूटनीतिक रणनीति को परिणाम तक ले जाना एकदिनी मैच की तरह नहीं होता। भारत और चीन के बीच ‘‘कोर इश्यूज’ कौन से हैं, जिन पर बात होनी चाहिए थी। जानना जरूरी है। भारत के लिए जो मुद्दे चुनौती बने हुए हैं, वे हैं-मैकमोहन रेखा पर चीन का नजरिया, सीपेक पर चीनी स्टैंड, दक्षिण एशियाई देशों में चीन की घुसपैठ और ग्वादर व हम्बनटोटा जैसे बंदरगाहों के सैन्यीकरण पर भारत की चिंताएं। चीन द्वारा पाकिस्तान को लगातार सैनिक आर्थिक मदद मुहैया कराना। पाकिस्तानी आतंकवादियों के प्रति उदार रवैया। एनएसजी और यूएन सिक्योरिटी काउंसिल में स्थायी सीट के लिए भारत की राह में रोड़े उत्पन्न करना। प्रमुख बात यह है कि वुहान में मोदी-जिनपिंग मीटिंग अनौपचारिक थी, जिसमें कोई संयुक्त बयान नहीं दिया जाना था यानी जो भी र्चचा हुई वह समझौते की शक्ल में नहीं आएगी। फिर कैसे मान लिया गया कि जिनपिंग ने भारत की तरफ से रखे गए कितने प्रस्तावों को माना है, कितनों को नहीं और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? दूसरी बात प्रधानमंत्री की वुहान यात्रा आकस्मिक थी यानी न लक्ष्य तय थे और न ही कोई एजेंडा (जैसा चाइना डेली ने लिखा है)। बिना एजेंडा और लक्ष्य के सफलता-असफलता जैसे विषय ही गौण हो जाते हैं। चाइना डेली के अनुसार दोनों नेताओं को केवल कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना था, विशेष रूप से ग्लोबल गवन्रेस और साझा अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों पर जिनमें सुरक्षा चिंताएं, आतंकवाद, संरक्षणवाद, मुक्त व्यापार व वैश्वीकरण जैसे विषय शामिल थे। संरक्षणवाद भारत के लिए न तात्कालिक विषय है और न ही इतना गंभीर कि उसके लिए प्रधानमंत्री को तत्काल चीन जाना पड़े। हां, यह चीन के लिए गंभीर मुद्दा जरूर है क्योंकि चीन संयुक्त राज्य अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के साथ व्यापार पर बढ़ती लड़ाई में उलझ चुका है। उसकी मंशा है कि भारत संरक्षणवाद और वैश्वीकरण के मुद्दे के साथ चीन के साथ खड़ा हो।चीन के अखबार का मानना है कि रोड एंड बेल्ट इनीशिएटिव (बीआरआई), जिसमें चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपेक) भी शामिल है, तथा डोकलाम जैसे मुद्दे वुहान शिखर बैठक में शामिल थे। लेकिन फोकस डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीति और विश्व व्यवस्था में पिछले 100 वर्षो में आए अभूतपूर्व परिवर्तनों पर कहीं अधिक था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चीन की महत्वाकांक्षाएं क्या हैं, और वह उनमें भारत को शामिल करने की रणनीति पर काम कर रहा है। चीनी मीडिया ने लिखा है कि अमेरिका और जापान ने हिन्द-प्रशांत रणनीति पर पिछले वर्ष काम शुरू किया था, जिसका उद्देश्य चीन को घेरना था। चीन का कहना है कि पश्चिम, चीन और भारत का एक दूसरे से मुकाबला कराना चाहता है, जबकि भारत और चीन को एक दूसरे के साथ सौदेबाजी और हेरफेर करने की जरूरत नहीं है। इसमें कोई संशय नहीं है कि भारत को चीन के साथ संघर्ष नहीं करना चाहिए। थोड़ी देर के लिए राष्ट्रप्रेम के अंधानुकरण को छोड़कर हम यथार्थ की बात करें तो सच यह है कि चीन प्रत्येक क्षेत्र में भारत से आगे है, चाहे आर्थिक क्षेत्र हो या सैन्य ताकत। यही नहीं दुनिया में उसकी कूटनीतिक हैसियत काफी बढ़ चुकी है। ऐसे में चीन से उम्मीद करना नासमझी ही होगी कि वह भारत से वार्ता के लिए आवेदन-निवेदन करेगा। फिर तो पहल करने की जरूरत भारत की तरफ से होनी चाहिए थी। तो क्या इस मीटिंग की पटकथा बीजिंग ने लिखी थी? प्राय: भारतीय मीडिया एवं बुद्धिवादियों का एक वर्ग तर्क देता है कि भारत अपने बाजार के बूते चीन को झुका सकता है। वे भूल जाते हैं कि भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार (84 बिलियन डॉलर) को अमेरिका-चीन द्विपक्षीय व्यापार (600 बिलियन डॉलर) बौना बना देता है। इसलिए चीनी कंपनियों के लिए भारत का बाजार जरूरी है, लेकिन इसके लिए वह नतमस्तक हो जाएगा, ऐसा नहीं है। यही नहीं, चीन बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव, सीपेक, ग्वादर, हम्बनटोटा और मारओ मामले में भी पीछे नहीं हटेगा। ऐसे में सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि मोदी और शी ने सीपेक पर क्या बात की और किस निष्कर्ष पर पहुंचे। हमारा आकलन कहता है कि चीन सीपेक मामले में अपने स्टैंड पर कायम रहेगा। क्या चीन ने हम्बनटोटा में सैन्यीकरण पर भारतीय चिंताओं को स्वीकार किया है? मालदीव पर भारत विरोधी नजरिए पर चीन का नजरिया क्या रहा? बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव पर भारत ने चीन को क्या आश्वासन दिया? बीआरआई चीन का अब तक सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, इसलिए भारत इस पर अपने स्टैंड पर कायम रहेगा तो चीन से मित्रता संभव ही नहीं। ध्यान देने की बात है कि 15 मई, 2017 को बीजिंग बीआरआई पर हुए समिट में भारत ने शामिल होने से इनकार किया था, और इसका चरित्र औपनिवेशिक बताया था। इसके लगभग एक पखवाड़े बाद ही डोकलाम की घटना सामने आ गई थी। चीन ने अजहर मसूद और पाकिस्तान को दी जाने वाली सपोर्ट पर किस तरह का आश्वासन दिया है? बदले में दलाई लामा व तिब्बत पर भारत ने क्या दिया? अफगानिस्तान का मसला तो बाद में आता है। फिलहाल, कूटनीतिक इतिहास की किताबों में अधिकांश बिना एजेंडे और लक्ष्य वाली अनौपचारिक वार्ताएं सिर्फ एक अध्याय के रूप में दर्ज हैं, जिनका कोई महत्व नहीं हैं। मोदी-जिनपिंग वार्ता खुशनुमा तस्वीर बनाती है, तो फिर इसे चमत्कार ही माना जाएगा।
माना जा रहा है कि 21वीं सदी एशिया की है, और भारत तथा चीन एशिया की दो बड़ी ताकतें हैं। सो, इन दोनों के बीच होने वाली सहमतियां और असहमतियां ग्लोबल नैरेटिव तैयार कर सकती हैं। 27-28 अप्रैल को वुहान में मोदी-जिनपिंग अनौपचारिक शिखर बैठक को सामान्यतया इसी नजरिए से देखा जा रहा है। लेकिन कई प्रश्न हैं? पहला, शिखर बैठक की पटकथा किसने लिखी थी? इस ‘‘वन-ऑन-वन’ या ‘‘हार्ट-टू-हार्ट’ कूटनीति के कोई स्थायी मायने और उपलब्धियां क्या अभी सामने आ पाई हैं? हार्ट-टू-हार्ट जैसी शब्दावली तो जट्टी उमरा (लाहौर) में मोदी-शरीफ मुलाकात के लिए भी प्रयुक्त हुई थी। वह भी अनौपचारिक मीटिंग थी। मोदी-जिनपिंग मीटिंग पर विदेश मंत्रालय की तरफ से कहा गया है कि दोनों नेताओं ने आतंकवाद को साझा खतरा बताया। प्रधानमंत्री मोदी ने जिनपिंग के साथ सैर करते हुए अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए लिखा है कि हमने आर्थिक सहयोग को गति देने के तरीकों पर बात की। संशय नहीं कि ‘‘वन-ऑन-वन’ अनौपचारिक शिखर बैठक में दोनों नेताओं के पास पर्याप्त समय एवं स्पेस होता है कि ‘‘कोर इश्यूज’ पर विस्तृत व निर्णायक बात कर सकें। लेकिन मेरी समझ से कूटनीतिक रणनीति को परिणाम तक ले जाना एकदिनी मैच की तरह नहीं होता। भारत और चीन के बीच ‘‘कोर इश्यूज’ कौन से हैं, जिन पर बात होनी चाहिए थी। जानना जरूरी है। भारत के लिए जो मुद्दे चुनौती बने हुए हैं, वे हैं-मैकमोहन रेखा पर चीन का नजरिया, सीपेक पर चीनी स्टैंड, दक्षिण एशियाई देशों में चीन की घुसपैठ और ग्वादर व हम्बनटोटा जैसे बंदरगाहों के सैन्यीकरण पर भारत की चिंताएं। चीन द्वारा पाकिस्तान को लगातार सैनिक आर्थिक मदद मुहैया कराना। पाकिस्तानी आतंकवादियों के प्रति उदार रवैया। एनएसजी और यूएन सिक्योरिटी काउंसिल में स्थायी सीट के लिए भारत की राह में रोड़े उत्पन्न करना। प्रमुख बात यह है कि वुहान में मोदी-जिनपिंग मीटिंग अनौपचारिक थी, जिसमें कोई संयुक्त बयान नहीं दिया जाना था यानी जो भी र्चचा हुई वह समझौते की शक्ल में नहीं आएगी। फिर कैसे मान लिया गया कि जिनपिंग ने भारत की तरफ से रखे गए कितने प्रस्तावों को माना है, कितनों को नहीं और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? दूसरी बात प्रधानमंत्री की वुहान यात्रा आकस्मिक थी यानी न लक्ष्य तय थे और न ही कोई एजेंडा (जैसा चाइना डेली ने लिखा है)। बिना एजेंडा और लक्ष्य के सफलता-असफलता जैसे विषय ही गौण हो जाते हैं। चाइना डेली के अनुसार दोनों नेताओं को केवल कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना था, विशेष रूप से ग्लोबल गवन्रेस और साझा अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों पर जिनमें सुरक्षा चिंताएं, आतंकवाद, संरक्षणवाद, मुक्त व्यापार व वैश्वीकरण जैसे विषय शामिल थे। संरक्षणवाद भारत के लिए न तात्कालिक विषय है और न ही इतना गंभीर कि उसके लिए प्रधानमंत्री को तत्काल चीन जाना पड़े। हां, यह चीन के लिए गंभीर मुद्दा जरूर है क्योंकि चीन संयुक्त राज्य अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के साथ व्यापार पर बढ़ती लड़ाई में उलझ चुका है। उसकी मंशा है कि भारत संरक्षणवाद और वैश्वीकरण के मुद्दे के साथ चीन के साथ खड़ा हो।चीन के अखबार का मानना है कि रोड एंड बेल्ट इनीशिएटिव (बीआरआई), जिसमें चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपेक) भी शामिल है, तथा डोकलाम जैसे मुद्दे वुहान शिखर बैठक में शामिल थे। लेकिन फोकस डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीति और विश्व व्यवस्था में पिछले 100 वर्षो में आए अभूतपूर्व परिवर्तनों पर कहीं अधिक था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चीन की महत्वाकांक्षाएं क्या हैं, और वह उनमें भारत को शामिल करने की रणनीति पर काम कर रहा है। चीनी मीडिया ने लिखा है कि अमेरिका और जापान ने हिन्द-प्रशांत रणनीति पर पिछले वर्ष काम शुरू किया था, जिसका उद्देश्य चीन को घेरना था। चीन का कहना है कि पश्चिम, चीन और भारत का एक दूसरे से मुकाबला कराना चाहता है, जबकि भारत और चीन को एक दूसरे के साथ सौदेबाजी और हेरफेर करने की जरूरत नहीं है। इसमें कोई संशय नहीं है कि भारत को चीन के साथ संघर्ष नहीं करना चाहिए। थोड़ी देर के लिए राष्ट्रप्रेम के अंधानुकरण को छोड़कर हम यथार्थ की बात करें तो सच यह है कि चीन प्रत्येक क्षेत्र में भारत से आगे है, चाहे आर्थिक क्षेत्र हो या सैन्य ताकत। यही नहीं दुनिया में उसकी कूटनीतिक हैसियत काफी बढ़ चुकी है। ऐसे में चीन से उम्मीद करना नासमझी ही होगी कि वह भारत से वार्ता के लिए आवेदन-निवेदन करेगा। फिर तो पहल करने की जरूरत भारत की तरफ से होनी चाहिए थी। तो क्या इस मीटिंग की पटकथा बीजिंग ने लिखी थी? प्राय: भारतीय मीडिया एवं बुद्धिवादियों का एक वर्ग तर्क देता है कि भारत अपने बाजार के बूते चीन को झुका सकता है। वे भूल जाते हैं कि भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार (84 बिलियन डॉलर) को अमेरिका-चीन द्विपक्षीय व्यापार (600 बिलियन डॉलर) बौना बना देता है। इसलिए चीनी कंपनियों के लिए भारत का बाजार जरूरी है, लेकिन इसके लिए वह नतमस्तक हो जाएगा, ऐसा नहीं है। यही नहीं, चीन बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव, सीपेक, ग्वादर, हम्बनटोटा और मारओ मामले में भी पीछे नहीं हटेगा। ऐसे में सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि मोदी और शी ने सीपेक पर क्या बात की और किस निष्कर्ष पर पहुंचे। हमारा आकलन कहता है कि चीन सीपेक मामले में अपने स्टैंड पर कायम रहेगा। क्या चीन ने हम्बनटोटा में सैन्यीकरण पर भारतीय चिंताओं को स्वीकार किया है? मालदीव पर भारत विरोधी नजरिए पर चीन का नजरिया क्या रहा? बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव पर भारत ने चीन को क्या आश्वासन दिया? बीआरआई चीन का अब तक सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, इसलिए भारत इस पर अपने स्टैंड पर कायम रहेगा तो चीन से मित्रता संभव ही नहीं। ध्यान देने की बात है कि 15 मई, 2017 को बीजिंग बीआरआई पर हुए समिट में भारत ने शामिल होने से इनकार किया था, और इसका चरित्र औपनिवेशिक बताया था। इसके लगभग एक पखवाड़े बाद ही डोकलाम की घटना सामने आ गई थी। चीन ने अजहर मसूद और पाकिस्तान को दी जाने वाली सपोर्ट पर किस तरह का आश्वासन दिया है? बदले में दलाई लामा व तिब्बत पर भारत ने क्या दिया? अफगानिस्तान का मसला तो बाद में आता है। फिलहाल, कूटनीतिक इतिहास की किताबों में अधिकांश बिना एजेंडे और लक्ष्य वाली अनौपचारिक वार्ताएं सिर्फ एक अध्याय के रूप में दर्ज हैं, जिनका कोई महत्व नहीं हैं। मोदी-जिनपिंग वार्ता खुशनुमा तस्वीर बनाती है, तो फिर इसे चमत्कार ही माना जाएगा।